FOLK ART MADE ON AUSPICIOUS OCCASIONS (CHOWK PURNA) IN THE CONTEXT OF UTTAR PRADESH मांगलिक अवसरों पर बनने वाली लोककला (चौक पूरना) उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में

USE OF INDIAN TRADITIONAL FOLK ARTS IN INTERIOR DESIGNING

भारतीय परंपरागत लोक कलाओं का इंटीरियर डिजाईनिंग में उपयोग

Anuradha Awasthi 1

 

1 Associate Professor, Maharani Laxmi Bai Government Girls College, Indore, Madhya Pradesh, India

 

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ABSTRACT

English: Designing means the process of combining various parts of an object or place by using the elements of art according to the principles of designing. All concrete arts are the process of creating beautiful combinations according to the principles of designing i.e. proportion, balance, force and rhythm by using color, line, vessel, pattern, light, and empty space, so that an object or place can be made useful and attractive.

India is famous for its folk arts all over the world, through these folk arts, unity in diversity is seen in India. The folk arts of India are traditional arts which have been transferred from generation to generation for many years. These folk arts have been preserving Indian culture and have become the identity of Indianness.

 

Hindi: डिजाइनिंग का तात्पर्य कला के तत्वों को डिजाइनिंग के सिद्धान्तों के अनुसार उपयोग में लाते हुए किसी वस्तु अपना स्थान के विभिन्न अंगों का संयोजन करने की प्रक्रिया से होता है । सभी मूर्त कलाऐं रंग, रेखा स्‍वरूप पोत, नमूना प्रकाश, तथा खाली स्थान का उपयोग करके डिजाइनिंग के सिद्धान्तों अर्थात् अनुपात, संतुलन, बल एवं लय के अनुसार सुन्दर संयोजन उत्पन्न करने की प्रक्रिया होती है, जिससे किसी वस्तु या स्थान को उपयोगी और आकर्षक बनाया जा सकता है।

भारत विश्‍व भर में अपनी लोक कलाओं के लिये प्रसिद्ध है, इन्हीं लोक कलाओं के माध्यम से भारत में विविधता में एकता के दर्शन होते हैं । भारत की लोक कलाऐं परंपरागत कलाऐं है जो पीढ़ी दर पीढ़ी अनेक वर्षों से हस्तांतरित होती आईं है। यह लोक कलाऐं भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखती आईं हैं और भारतीयता की पहचान बन गई हैं।

 

Received 20 October 2024

Accepted 11 November 2024

Published 19 November 2024

Corresponding Author

Anuradha Awasthi, awasthianuradha28@gmail.com

 

DOI 10.29121/ShodhShreejan.v1.i1.2024.4  

Funding: This research received no specific grant from any funding agency in the public, commercial, or not-for-profit sectors.

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Keywords: Interior Designing, Folk Art, Indian Culture, इंटीरियर डिजाईनिंग, लोककला, भारतीय संस्कृति

 


1.  प्रस्तावना

डिजाइनिंग का तात्पर्य कला के तत्वों को डिजाइनिंग के सिद्धान्तों के अनुसार उपयोग में लाते हुए किसी वस्तु अपना स्थान के विभिन्न अंगों का संयोजन करने की प्रक्रिया से होता है । सभी मूर्त कलाऐं रंग, रेखा स्‍वरूप पोत, नमूना प्रकाश, तथा खाली स्थान का उपयोग करके डिजाइनिंग के सिद्धान्तों अर्थात् अनुपात, संतुलन, बल एवं लय के अनुसार सुन्दर संयोजन उत्पन्न करने की प्रक्रिया होती है, जिससे किसी वस्तु या स्थान को उपयोगी और आकर्षक बनाया जा सकता है। Agarwal (1979)

भारत विश्‍व भर में अपनी लोक कलाओं के लिये प्रसिद्ध है, इन्हीं लोक कलाओं के माध्यम से भारत में विविधता में एकता के दर्शन होते हैं । भारत की लोक कलाऐं परंपरागत कलाऐं है जो पीढ़ी दर पीढ़ी अनेक वर्षों से हस्तांतरित होती आईं है । यह लोक कलाऐं भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखती आईं हैं और भारतीयता की पहचान बन गई हैं।

कला का अर्थ :- डॉ. रीता प्रताप के अनुसार – "मनुष्य की वह रचना जो उसके जीवन में आनन्द प्रदान करती है कला कहलाती है" । भारत के परंपरागत शास्त्रों में कला शब्द का प्रयोग हुआ है । ऋगवेद में कला शब्द का प्रयोग हुआ । भरत मुनि ने अपने नाट्य शास्त्र में प्रथम शताब्दी में कला का उल्लेख किया है । सामान्यतः जिन क्रियाओं को करने में विशेष प्रकार की शारीरिक, मानसिक चतुराई और कुशलताओं की आवश्यकता होती है उन्हें कला शब्द से संबोधित किया जाता है, पाश्‍चात्‍य दृष्टिकोण भी कुछ इसी प्रकार का है, शिल्प कौशल को भी कला माना गया है।

लोक कलाऐं:- लोक कलाओं का तात्पर्य उन कलाओं से है जो विभिन्न सांस्कृतिक एवं भौगोलिक क्षेत्रों में पीढ़ी दर पीढ़ी परम्पराओं के रूप में विकसित हुई हैं तथा विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र की पहचान बन गई हैं। यह लोक कलाऐं दो प्रकार की है-

1)     अमूर्त :- जैसे कंठ संगीत, वाद्य संगीत एवं नृत्य:- जिनका कोई निश्चित भौतिक मूर्त रूप नहीं होता । इन कलाओं की शिक्षा बहुत ही व्यवस्थित और श्रमसाध्य होती है तथा प्राय: गुरु - शिष्य परंपरा द्वारा दी जाती है।

2)     मूर्त कलाऐं :- इनमें वे कलाऐं आती हैं जिनमें कला के तत्वों का उपयोग डिजाइन के सिद्धान्तों के अनुसार करके भौतिक पदार्थों, वस्तुओं अथवा स्थान की रचना की जाती है । जैसे मूर्ति कला, चित्रकला, धातु से मूर्ति निर्माण की कला, पत्थर से मूर्ति निर्माण, मिट्टी के बर्तन, वस्त्र, आभूषण, परिधान निर्माण और अलंकरण की कला आदि।

विद्वानों के अनुसार कला का अर्थ

प्लेटो के अनुसार विभिन्न प्राकृतिक वस्तुओं की सुन्दर अनुकृति बनाने की क्रिया कला है।

अरस्तु ने प्राकृतिक सौन्दर्ययुक्त वस्तु के अनुकरण से बनाई संरचना को कला माना है।

हीगल ने व्‍यक्ति अथवा ईश्‍वर की सत्ता को व्यक्त करने का माध्यम कला को माना है।

टॉलस्टाय के अनुसार क्रिया, रंग, रेखा, ध्वनि शब्द आदि के माध्यम से भावों की वह अभिव्यक्ति जो श्रोता दर्शक या पाठक के मन में सुन्दर भाव उत्पन्न कर दे उसे ही कला माना है।

टैगोर ने मनुष्य के गंभीरतम भावों की किसी माध्यम से अभिव्यक्ति को कला कहा है।

प्रसाद जी ने ईश्‍वर द्वारा प्रदत्‍त मनुष्य की शारीरिक या मानसिक शक्तियों का उपयोग कर कौशलपूर्वक किये गये रचनात्मक निर्माण को कला माना है।

इस प्रकार मानव मन के भावों की वह अभिव्यक्ति जो शारीरिक या मानसिक कौशलों का प्रयोग करके कुशलतापूर्वक दर्शक, पाठक या श्रोता को आनन्द प्रदान करती है कला मानी जाती है।

आंतरिक सज्जा में लोक कलाओं का उपयोग:- लोक कलाओं का अर्थ किसी भौगोलिक अंचल में निवास करने वाले स्थान विशेष के व्यक्तियों द्वारा अभिव्यक्त किये जाने वाले कलात्मक विचारों, वस्तुओं एवं संस्कृति से है जो उस स्थान विशेष के भावों की अभिव्यक्ति करते हैं तथा एक क्षेत्र के जनजीवन की पहचान होती हैं। Verma (n.d.)

इडन गेली के अनुसार लोक कला विभिन्न प्रकार की चित्रकारी संगीत गीत या सजावट करने की विशिष्ट शैलियाँ होती हैं जो कि किसी स्थान या भौगोलिक क्षेत्र विशेष की पहचान होती हैं Das (1939)

आंतरिक सज्जा का अर्थ किसी भवन के भीतरी स्थान में उपस्थित कला के तत्त्वों एवं पर्यावरणगत तत्वों की उस व्यवस्था से है जो भवन के भीतरी स्थान को उसके उपयोग या उद्देश्य के अनुकूल सुन्दर एवं आरामदायक बनाती है । आंतरिक सज्जा भी कला का ही एक रूप है । आंतरिक सज्जा में वर्तमान समय में अनेक लोक कलाओं का उपयोग होता है जो इस प्रकार है :-

आंतरिक सज्जा में प्रयुक्त लोक कलाऐं:-

1)     चित्रकारी:- आंतरिक सज्जा में लोक कलाओं का प्रयोग सबसे अधिक चित्रकारी के माध्यम से ही किया जाता है । विभिन्न प्रकार के भवनों को सजाने के लिये प्राय: लोक कलाकारों के द्वारा निर्मित लोक कलाओं को प्रदर्शित करते हुऐ चित्रों या पेन्टिंग का उपयोग किया जाता है जिनमें से प्रमुख हैं:-

·        मधुबनी:- मधुबनी चित्रकारी का एक प्रकार है जो भारत और नेपाल के मिथिला क्षेत्र में प्रचलित है जो कि बिहार के मधुवनी जिले से उत्पन्न हुई है और सम्पूर्ण विश्‍व में अपनी पहचान बना चुकी है । इस चित्रकला का आरंभ ईसा पूर्व 7-8 वीं शताब्दी में हुआ ऐसा माना जाता है, इसमें प्राकृतिक रंगों का उपयोग होता है, नमूने भी प्राय: प्राकृतिक ही होते हैं तथा रेखाओं का उपयोग अधिक किया जाता है । चटकीले रंगो का उपयोग होता है इसमें प्रायः धार्मिक कथाओं से संबंधित चित्र बनाये जाते हैं।

·        वर्ली चित्रकारी:- वर्ली चित्रकारी महाराष्ट्र की एक जनजाति वर्ली के द्वारा बनाई जाने वाली चित्रकारी का प्रकार है जिसका प्रारंभ ईसा के बाद दसवीं शताब्दी से माना जाता है । इस चित्रकारी  की शैली में प्रतिदिन के जीवन से जुड़े पक्ष जैसे- खेती, मछली पालन, शिकार आदि को दर्शाया जाता है । प्राकृतिक रंगो का तथा ज्यामितिक नमूनों का उपयोग होता है, जिसमें गहरी पृष्ठभूमि पर सफेद रंग से आकृतियाँ बनाई जाती हैं।

·        गोन्ड चित्रकारी:- मध्य प्रदेश की गोंड जनजाति द्वारा विकसित चित्रकारी की शैली को गोंड चित्रकारी कहा जाता है, इसमें भी प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है जो प्राय: लाल, पीले, नीले, हरे और सफेद होते हैं । इनमें धार्मिक कथाओं के चरित्र एवं पुराणों की कहानियाँ दर्शाई जाती हैं।

·        पाल चित्रकारी:- बंगाल में तृतीय शताब्दी में उत्पन्न चित्रकारी जिसका आरंभ पाल राजा महिपाल के द्वारा किया गया था पाल चित्रकारी कहलाती है, इसमें मुख्य रूप से बौद्ध धर्म द्वारा प्रतिपादित कथाओं के चित्र विचार दर्शाये जाते हैं।

·        काँगड़ा चित्रकारी:- हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा से उत्‍पन्‍न चित्रकारी की इस शैली का विकास 17वीं शताब्दी से माना जाता है । इसमें प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है । प्राकृतिक सुन्दरता तथा धार्मिक कथाओं के चरित्र दर्शाये जाते हैं । रंगों रेखाओं का उपयोग बहुत ही कोमलता से प्रयोग किया जाता है, स्त्रियों के वस्त्राभूषण का बारीकी से चित्रांकन होता है।

·        तंजौर चित्रकारी:- दक्षिण भारत में विकसित चित्रकारी तंजौर के नाम से प्रसिद्ध है । 18वीं शताब्दी में प्रचलित इस चित्रकारी में चटकीले रंगों के साथ सुनहरी रंग और चमकीले पत्थरों, रत्‍नों का भी प्रयोग होता है । इस शैली में प्राय: व्यक्तियों के चित्र बनाये जाते हैं।

·        काली घाट चित्रकारी:- बंगाल प्रांत के कलकत्ता शहर में उन्नीसवीं शताब्दी में विकसित चित्रकारी को काली घाट शैली कहा गया क्योंकि वह कलकत्ता के काली घाट क्षेत्र में बनाई जाती थी । इन चित्रों में प्रमुख रूप से देवी काली के विभिन्न रूपों को दर्शाया गया है, ये प्रमुख रूप से मंदिरों में ही बनाये और बेचे जाते थे।

 

इनके अतिरिक्त भी अनेक चित्रकारी की शैलियाँ हैं जिनका विकास भारत के विभिन्न क्षेत्रों में हुआ और वे आज भी प्रचलित हैं । Pratap (2017)

चित्रकारी के अतिरिक्त कुछ और लोक कलाऐं आंतरिक सज्जा में प्रयुक्त होती हैं उनमें प्रमुख है :-

1)     रांगोली:- विभिन्न रंगों के पत्थरों को बारीक पीस कर या रेत के कणों को रंग कर उनसे फर्श पर जो भी रंग रेखा, स्वरूप एवं पोत की संरचना समतल धरातल पर बनाई जाती है वह रांगोली कहलाती है । भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न रूपों और नमूनों में रांगोली बनाई जाती है । दीपावली पर इसे बनाने का विशेष महत्व है।

2)     अल्पना:- बंगाल में चावल को भिगो कर, पीस कर उसके घोल से जो प्राकृतिक नमूनों युक्त संरचना फर्श पर समतल धरातल पर बनाई जाती है अल्पना कहलाती है, इसमें प्राय: सफेद तथा गेरु के रंगों का उपयोग किया जाता है।

3)     मांडणना:- राजस्थान तथा मालवा में सफेद खरीया मिट्टी के घोल तथा गेरु से फर्श पर जो ज्यामितिक नमूने बनाये जाते हैं वे मांडणना कहलाते हैं । इसमें धार्मिक कथाऐं एवं पुराणों के चित्र बनाये जाते हैं।

4)     फूलों की रोगोली:- दक्षिण भारत में परंपरागत रूप से विभिन्न रंगों के फूलों से रांगोली बनाई जाती है । विशेषकर केरल में ओणम के त्योहार पर मंदिरों में ऐसी आकर्षक रांगोली बनाई जाती है।

5)     बन्दनवार अथवा तोरण:- भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों में भवनों के विशेषकर घरों के मुख्‍य द्वार पर पत्तियों, पुष्पों, आम, केले के पत्‍तों, मोतियों, सीपीयों को धागे में गूंथ कर सुन्दर वन्दनवार या तोरण बनाये जाते हैं।

 

इन सभी परंपरागत भारतीय लोक कलाओं का आंतरिक सज्जा में उपयोग शताब्दियों से किया जा रहा है । वर्तमान में कम्प्यूटर तथा इंन्टरनेट ने इन कलाओं को विश्‍वभर में प्रचलित कर दिया है

 

CONFLICT OF INTERESTS

None. 

 

ACKNOWLEDGMENTS

None.

 

REFERENCES

Agarwal, R.A. (1979). Development of Indian Painting, Meerut.

Das, R. K. (1939). Painting of India, Varanasi. 

Pratap, R. (2017). History of Indian Painting and Sculpture, Rajasthan Hindi Granth Academy.

Verma, A. B. (n.d.). History of Indian Painting, Bareilly.

 

 

 

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